स्यादवाद क्या हैं ? सफल जीवन के लिए जरूरी

स्यादवाद, कुछ लोग इसे शायदवाद भी कह देते है जो कि गलत हैं इसका अर्थ सापेक्षतावाद हैं। स्यादवाद कुछ हद तक अनेकान्तवाद जैसा ही दिखता हैं और आपको बहुत सी जगह किताबो या वेबसाइट पर ऐसा ही सिखाया जाता हैं ओर सप्तभंगिनीय सिद्धान्त से समझाया भी जाता हैं। 

स्यादवाद का अर्थ सापेक्षतावाद भी हैैं। इससे हमें किसी वस्तु के गुण को समझने, समझाने और अभिव्यक्त करने में सहायता मिलती हैं। लेकिन स्यादवाद को अनेकान्तवाद से पूर्णरूप से जोड़ना बिल्कुल सही नही हैं। मेरा ऐसा मानना हैं कि यदि दोनों का अर्थ एवं मतलब एक सा होता तो दो अलग अलग सिद्धांत अथवा शब्द बनाने की कोई आवश्यकता नही थी। 

अनेकान्तवाद में ये माना जाता हैं कि कोई भी व्यक्ति परम सत्य को नही जानता वो सिर्फ वस्तु के एक हिस्से या कुछ हद तक जान सकता हैं ओर वो सत्य से अनभिज्ञ ही रहता हैं लेकिन आज के दौर में हर व्यक्ति अपनी बात को सत्य सिद्ध करने में लगा रहता हैं। जैसा कि हमने अनेकान्तवाद के सिद्धांत में देखा हैं कि व्यक्ति परम सत्य को ज्ञात नही होता हैं ओर अपने एक दृष्टिकोण से ही वस्तु को देख सकता हैं। 

जब कोई व्यक्ति वस्तु के एक दृष्टिकोण से देख कर निर्णय कर लेता हैं की वो ठीक हैं जैसे वो आसमान को देखता हैं और बोलता हैं कि वो नीला हैं तो उसके दृष्टिकोण से वो बिल्कुल ठीक हैं लेकिन पूर्ण सत्य ना हो। किसी ओर के दृष्टिकोण से वो आसमानी हो सकता हैं, बेंगनी हो सकता हैं या कम नीला भी हो सकता हैं। यहां यह तो सत्य हैं कि आसमान का कोई रंग तो हैं और ये बात सत्य भी हैं लेकिन मत अलग हो सकते हैं। 

वही दूसरी तरफ अनेकान्तवाद में व्यक्ति सत्य से बिल्कुल अनभिज्ञ होगा और एक निर्णय पर पहुँचना मुमकिन नही हैं। हर व्यक्ति एक अपनी स्वयं की मान्यता पर जा सकता हैं, अपना दृष्टिकोण अलग रख सकता हैं लेकिन परम सत्य को ज्ञात करना मुमकिन नही। परम सत्य को जानने के लिए केवली होना पड़ेगा। 

वही दूसरी तरफ स्यादवाद में एक सत्य उपस्थित तो हैं लेकिन सत्य को जानने में एक भ्रम है हर व्यक्ति के अपने अलग अलग मत हैं। 


स्यादवाद को हम एक उदाहरण से समझ सकते हैं। एक दादाजी हैं, उसका बेटा हैं और उसके बेटे का बेटा (पौत्र) हैं। पिता अपने पुत्र का पिता हैं वही वो अपने पिता के लिए बेटा हैं। चूंकि उसका बेटा उसे पिताजी कहता हैं इसका मतलब ये नही की वो दादा से विवाद करे और बोले कि ये मेरे पिता हैं और आप भी इसे पिताजी ही कहो। ओर दादाजी यहां विवाद कर पौत्र को ये नही कह सकता कि ये मेरा बेटा है और तुम भी इसे बेटा ही कहो। 

यहां पर एक सत्य हैं सम्बंध का लेकिन रिश्ते अलग अलग हैं। सत्य की जानकारी होने पर भी विवाद संभव हैं। एक ही व्यक्ति को लेकर पौत्र का दृष्टिकोण अलग हैं वही दादा का दृष्टिकोण अलग हैं । दोनों यहां पर सत्य ही बोल रहे हैं। इसी बात को समझना, समझाना ओर अभिव्यक्त करना स्वादवाद हैं। 


स्यादवाद का सिद्धांत किस धर्म से संबंधित हैं ?
स्यादवाद का सिद्धांत तीर्थंकर महावीर ने दिया हैं। उनके अनुसार हमारा ज्ञान सीमित तथा सापेक्ष होता हैं। हमे ईमानदारी से इस बात को स्वीकार कर लेना चाहिए। ये सिद्धांत जैन धर्म के मूल सिद्धांतों में से एक हैं। 

इस सिद्धांत या विचार को किसी एक धर्म विशेष के चश्मे से नही देखा जा सकता। आज के युग मे ये बहुत ही प्रांसगिक हैं और इसकी बहुत ही जरूरत हैं। आज की दुनिया मे तमाम तरह के झगड़े फसाद जैसे आतंकवाद, नक्सलवाद, साम्प्रदायिक फसाद आदि आदि के होने का कारण हैं स्यादवाद ओर अनेकान्तवाद के विचार को न समझना। 

सभी सम्प्रदाय या व्यक्ति हमेशा अपना दृष्टिकोण ही सत्य और उचित मानता हैं। दुसरो के नज़रिओ की बिल्कुल अवहेलना की जाती हैं। उनके पक्ष को नही सुना जाता हैं और अगर सुन भी लिया जाए तो अवेहलना की जाती हैं कि परम सत्य तो सिर्फ हमारे पास ही हैं। 

स्यादवाद ओर अनेकान्तवाद को यदि हम अपने जीवन मे अपना लेते हैं तो हमारा नैतिक दृष्टिकोण बदलेगा और इस बात को स्वीकारते हैं कि सिर्फ हम ही सही नही सामने वाला भी दूसरे दृष्टिकोण से सत्य हैं। ये हमे दुसरो का सम्मान और इज्जत करना भी सिखाता हैं। 

यदि ये कहा जाए कि ये जीवन जीने की एक कला हैं तो अनुचित नही होगा। 

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